दृश्य विधान – कविता: मनोज शर्मा
उस शाम
अपनी खिड़की से उसने
ऐसे देखा कि जैसे
मैं कोई दृश्य हूँ
जो थोड़ी देर बाद ओझल हो जाएगा…
इस काल में स्मृतियाँ अपनी तरलता भूल चुकीं हैं
कल्पनाएँ नहीं बचीं हैं देदीप्यमान
सच पेशेवर हो लिया है तथा
प्रत्येक रास्ता बस सफलता के लिए जन्मा है
मैं
दृश्य से कुछ अधिक हूँ
ऐसा कहना चाह रहा हूँ
मुझ पर है समय का आब
माथे पर धूप खिलती है मेरे
मेरे नथुनों में महकते हैं गुलाब
उसने फिर लटें हटायीं
जैसे किसी भी दृश्य की झलक पर करती ही है
उसने फिर असंतोष की ली सांस
जैसे हर सन्दर्भ पर भरती ही है
खिड़की से बाहर,आम की डाल पर
एक चिर-जागरूक कौवा पुतली मटका रहा था
कैसी उत्पत्ति है यह
जिसमें पतित हो चुकीं हैं तमाम भावनाएं
अब अकारण कुछ नहीं होता घटित
बस संधान होते हैं
जिनके केंद्र में ही हैं सामूहिकताएं
मैं
अपने अंतस में उतरता हूँ
प्रत्येक रहस्य किसी नग सा दमकता है
अथाह अनिश्चितताएं मिलतीं हैं बल खातीं
अगिन संवेदनाएं मुसकातीं
पलक खोलते ही पाता हूँ
कटे-फटे जीवन पर बंधी
उम्मीद
किसी पुरानी टाट-पट्टी सी उघड़ती जा रही है
दुःख
घडुप-घडुप की ध्वनी निकालता
शाश्वत एकांत को तोड़ता जाता है
असफलता के डर ने ढक लिया है समग्र दृश्य-विधान
दृष्टि टिकती नहीं कि पृष्ठ पलट जाता है
मन के भरोसे कुछ नहीं
भावुकता कभी भी भयानक हाहाकार में बदल सकती है
खिड़की से झांकती आँखों का सतत सूखापन
यूं समझ में आता है
दृश्य बदले-न-बदले
रूझान बदल जाता है।
– मनोज शर्मा
प्रतिरोध की कविता के जाने-माने कवि।
एक्टिविस्ट पत्रकार – अनुवादक – कवि – साहित्यकार।
इनके काव्य संग्रह हैं, यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आऊंगा, बीता लौटता है और ऐसे समय में।
उद्भाव ना पल प्रतिपल आदि के कविता विशेषांक आदि में संपादकीय सहयोग।
इनकी कविताओं का अनुवाद डोंगरी पंजाबी मराठी अंग्रेजी आदि में।
संस्कृति मंच की स्थापना जम्मू में।
संप्रति नाबार्ड में उच्च पोस्ट पर।