स्वामी विवेकानंद की ललकार: पाखंडी पुरोहितों को ठोकरें मार कर निकाल दो
मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन जापान में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है।
तुम लोग क्या कर रहे हो? जीवन भर केवल बेकार बातें करते हो। व्यर्थ बकवाद करने वालों, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो।
सठियाई बुध्दिवालों, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जाएगी!
अपनी खोपड़ी में वर्षों के अंधविश्वास का निरंतर वृध्दिगत कूडा-कर्कट भरे बैठे, सैकड़ों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करने वाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोंटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो?
तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशीगीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी-जान से तड़प रहे हो। यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्वाकांक्षा है।
तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुंड के झुंड बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तड़पते हुए उन्हें घेर कर ‘ रोटी दो, रोटी दो’ चिल्लाते रहते हैं।
क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो?
आओ, मनुष्य बनो! उन पाखंडी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मार कर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकड़ों वर्षों के अंधविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को जड-मूल से निकाल फेंको।
आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोड़ो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ़ रहे हैं।
क्या तुम्हें मनुष्य से प्रेम है? यदि ‘हाँ’ तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखो। अत्यंत निकट और प्रिय संबंधी रोते हों, तो रोने दो, पीछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ।
भारत माता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है – मस्तिष्क वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोड़ने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है।
(वि.स.1/398-99)
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