प्रभु! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? : व्यंग्य – प्रेम जनमेजय
सुबह का समय था। सबके लिए सुबह का समय नित्यकर्म का होता है। कुछ के लिए प्रतिदिन प्रभु स्मरण का होता है। यदि आप नास्तिक हैं और धर्म को अफीम समझते हैं तो प्रभु का अन्यार्थ, स्वामी या मालिक ग्रहण करें। स्वामी आपके चहुं ओर हाई कमांड, बाॅस, मंत्री-संत्री, आदि के रूप में व्याप्त हैं ही। आप अपने उन प्रभु का स्माण कर लें। बिन प्रभु कृपा के कार्य के संपन्न होने में सदा संदेह रहता है जैसे बिना हाई कमांड की इच्छा के चुनाव के लिए टिकेट मिलने में संदेह होता है। प्रभु की कृपा से पंगु गिरि लांघ जाता है और स्वामी का कृपापात्र बिना चुनाव के संसद में पहुंच जाता है। प्रभु की कृपा से कर बिनु नाना प्रकार के कर्म संभव हो जाते हैं और स्वामी के कृपापात्र के हाथ कानून से भी लंबे हो जाते हैं। प्रभु कृपा से रंक चले सिर छत्र धराई और स्वामी का कृपापात्र मलाईदार मंत्रालय का कैबिनेटी अधिकार पाता है। पर हां ये सनद रहे कि चाहे आप आस्तिक हों या नास्तिक, चरण-कमल बंदों के लिए दंडवत होना ही पड़ता है। आपको अपनी आजादी चरण-कमल में सीमित करनी ही पड़ती है।
कुछ के लिए प्रभु मेरे तो गिरिधर गोपाल टाईप दूसरो न कोई होते हैं और कुछ के लिए, जैसे आत्मा शरीर बदलती है और जीव कपड़े बदलता टाईप। पहली कैटिगरी के भक्त प्रतिदिन समस्त कर्मकांड सहित प्रभु की आरती गाते हैं और गवाते हैं, स्मरण करते हैं और करवाते हैं। जो आरती नहीं गाता या स्मरण नहीं करता उसका कर्मकांड भी कर देते हैं। कर्मकंाड के भय से श्रीमान डरपोक जी घरघुस्सु बन अपने घर की चारदिवारी को जेल में परिवर्तित कर लेते हैं। आपकी आजादी फैलेगी तो दूसरे की सिकुड़ेगी ही। देश की चादर तो उतनी ही है। पैरों को फैलने की उतनी ही आज़ादी है। पर कुछ पैर जब फैलकर देश की चादर फाड़ने लगते हैं तो दूसरे देश की चादर बचाने को पैर सिकोड़ लेते हैं।
दूसरी कैटेगिरी के भक्तों की भक्ति और स्मरण यदा यदा आवश्यकता पड़े टाइप होता है। इसमें प्रभु को स्मरण करते हुए प्रभु को प्रसाद चढ़ाने के संकल्प का भी प्रावधान है। परीक्षा में स्वयं के पास होने से लेकर नौकरी, छोकरी, चुनाव विजय आदि के लिए प्रभु स्मरण इसी श्रेणी में आता है। इसमें भक्त का प्रभु से रिश्ता विक्रेता और ग्राहक का होता है। काम हुआ, प्रसाद चढ़ाया और जय श्रीराम। राधेलाल भी इसी केटेगरी का प्रभु स्मरण कर रहा था।
राधेलाल ने आभासित हाथ जोड़े हुए थे और प्रार्थना रहा था–हे प्रभु जैसे आपने चुनाव की भीषण गर्मी में तपे अपने भक्तों को सत्ता सुख की वर्षा से नहलाया है, मुझपर भी कृपा करो। मुंबई में अत्यधिक वर्षा के कारण स्कूल बंद हैं तो दिल्ली में अत्यधिक गर्मी के कारण। प्रभु ये भेदभाव क्यों? तुम कहीं पॉलिटिक्स तो नही खेल रहे हो? मुंबई में सत्ता सुख -सा जलथल और दिल्ली में इस्तीफे- सा सूखा। तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है, प्रभु ? कहीं इंद्र ने इस्तीफे की धमकी तो नहीं दे दी। बेचारे न सारी गर्मी बहुत पसीना बहाया और आपने उसकी एक बूंद को भी मोतियों में नहीं तोला।
प्रभु ने राधेलाल कि प्रार्थना सुनी या फिर किसी पांडेय रामलुभाया, आदि की कि बादलों ने अच्छे दिनों की आहट दे दी। बादलों ने अच्छी फसल की आशा में किसी किसान के मन में पत्नी के लिए हार ओर बेटी के ब्याह जैसे विचारों की तरह घुमड़ना आंरभ कर दिया। बादल भी गरजे पर कितना बरसेंगे किसान को मालूम नहीं था, बेचारा राधेलाल क्या जाने!
राधेलाल घुमड़ते बादलों को देखने के लिए बालकॉनी में पहुंच गया। उसने पत्नी को आवाज़ दी-देखो देवी! तुम्हारे द्वार पर न्यायालय से न्याय मिलने की उम्मीद से बादल आये हैं।
पत्नी ने मलती आंखों से देखा और करमुक्त मुस्कान के साथ अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। उसने बालों को बांधते हुए पतिश्री को अपने व्यंग्यजाल में लपेटते हुए कहा- हर समय कवियाए ही रहते हो। सीधे बोलेगे कि आकाश में बादल छाए हैं तो किसी और तरह से छा जाएंगें। ’’
डांट खाए पतिदेव ने झेंपियाते हुए देवी से कहा -चाय बनाओ न। दोनो मौसम की बौछारों संग चाय पीते हैं।
-फ्रेश होकर आती हूं, बनाती हूँ।
इधर देवी फ्रेश होने गईं उधर राधेलाल को पांडेय जी का फोन आ गया। ये इधर-उधर अनेक बार जिंदगी में अनेक विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न कर देते हैं। इधर आपने बैंक से पैसे निकाले, उधर उधार देने वाले ने आपको दबोच लिया। इधर आप चुनाव हारे उधर आपकी पार्टी की बनी बनाई सरकार के एम एल ए दल बदल गए। इधर आपके नेतृत्व में चुनाव हारा गया उधर नेतृत्व बदलाव की मांग उठ गई। और इधर आप चुनाव जीते उधर सत्ताधारी बन गएं।
राधेलाल को पांडेय जी का फोन भी इधर-उधर वाला ही था।
राधेलाल ने चहक कर कहा – क्या बढ़िया मौसम हो गया हैं, पांडेय जी!
पांडेय जी कभी इधर उधर नहीं करते हैं सीधे इधर या उधर की बात कहते हैं। जैसे आपके अधिकारी के पास अधिकार सुरक्षित होते हैं वैसे ही इनके पास अधिकार सुरक्षित हैं। ये पूछते नहीं कि घर आउं या न आउं, अधिकार से आ जाते हैं। आज भी अधिकार से बोले- इसलिए ही तो फोन किया है। मौसम पकौड़ियाना हो गया है। मैडम से कहो पकौडे़े बनाएं, मैं आध घंटे में आ रहा हूं।
मेरी और पत्नी की अकेले चाय पीने की आजादी सिकुड़ गई थी। पर फ्रेश होकर आने वाली पत्नी को कैसे ये फ्रेश समाचार दूंगां! मेरी तो लबबंदी हो गई थी। कभी इस देश में आपातकाल लगा था और पुरुषों के साथ देश की भी नसबंदी हुई थी। किसकी नसबंदी होनी है किसकी नहीं, इसके फंडे क्लियर थे। राज्य में शराबबंदी होती है पर किसके लिए है किसके लिए नहीं, ये भी क्लियर होता है। लबबंदी के बारे में भी क्ल्यिर है कि किसकी होनी है और किसकी नहीं। इसलिए तब बोल कि जब लब आजाद हों तेरे। पत्नी के साथ अपना यही फंडा है। आजाद लब के साथ बोलता हूं पर इस खतरे के साथ कि कभी भी सिल दिए जा सकते हैं। ऐसे में पहले पत्नी के सामने एक्स्यूज मी की मुद्रा में खड़ा हो जाता हूं। उसकी वित्तमंत्रीय आंखे समझ जाती हैं कि मुझ भ्रष्टाचारी ने कुछ किया है पर…।
ऐसे में पत्नी सक्रोध कहती है- कुछ तो मुंह से फूटो…
-पहले मुझे लब खोलने की आजादी तो दो। ’
उस दिन भी आजादी मिलने के बाद मैंने लब खोले और इतनी मिठास वाले शब्दों में बोला कि सामने वाले को शुगर हो जाए- वो… वो तुम इस मौसम में गजब ढा रही हो। चाय के साथ पकौड़े भी हो जाएं तो…क्या पकौड़े बनाती हो तुम… मौसम भी पकौड़ों का है।
-ये मौसम तो दो महीने चलेगा … वैसे भी तुम्हारा कोलेस्ट्रोल पेट्रोल के दामों की तरह बढ़ रहा है। चाय ही ठीक है…
-वो क्या है कि पांडेय जी को भी पकौड़े पसंद हैं।
पत्नी ने जैसे मेरी कर चोरी पकड़ ली हो -तो पांडेय जी को चाय पर बुला लिया है। दो पल मेरे साथ चाय पीने में तुम्हारा दम घुटता है। दोस्तों से इतना प्यार है तो शादी क्यों की ?
-मैंने नहीं बुलाया है, मौसम देख कर उसका फोन आया था और कह रहा था कि मैडम पकौड़े गजब के बनाती हैं। वो तो पकौड़े खाता बाद में है, उसे फेसबुक पर पहले डाल देता है। क्या बढ़िया टिप्पणियां और लाईक आते हैं तुम्हारे लिए। एक ने तो यह लिखा था कि तुम्हें पकौड़ा शिरोमणि की उपाधि मिलनी चाहिए। देश के कोने-कोन में तुम छा गई हो।
-जानती हूं। जहां जाती हूं लोग मेरे पकौड़ों की चर्चा करते हैं। एक तो बोली कि हमारे बीच आज पकौड़ा क्वीन पधारी हैं।
-कहो तो पांडेय जी को मना कर देता हूं।
-नहीं रहने दो। किस-किस के बनाऊं। पांडेय को गोभी के बहुत अच्छे लगते हैं। मौसम तो वास्तव में पकौड़े लायक है। और रही हम दोनो की चाय, हम फिर कभी साथ पी लेंगें। ये मौसम तो दो महीने चलेगा … और हां अपने कोलेस्ट्रोल का ध्यान रखना, समझे?
मैं समझ गया कि अपनी आजादी की चादर किस लालच में सिकोड़ ली जाती है।
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-डॉ. प्रेम जनमेजय
व्यंग्य-लेखन के परंपरागत विषयों में स्वयं को सीमित करने में प्रेम जनमेजय विश्वास नहीं करते हैं।
व्यंग्य को गंभीर कर्म तथा सुशिक्षित मस्तिष्क के प्रयोजन की विधा मानने वाले प्रेम जनमेजय आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं।
जन्म 18 मार्च, 1949, इलाहाबाद, उप्र, भारत।
प्रकाशित कृतियांः व्यंग्य संकलन – राजधानी में गंवार, बेर्शममेव जयते, पुलिस! पुलिस!, मैं नहीं माखन खायो, आत्मा महाठगिनी, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं, शर्म मुझको मगर क्यो आती!, डूबते सूरज का इश्क, कौन कुटिल खल कामी।
संपादनः प्रसिद्ध व्यंग्यपत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक, बींसवीं शताब्दी, उत्कृष्ट साहित्यः व्यंग्य रचनाएं ।
नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी हास्य व्यंग्य संकलन ‘श्रीलाल शुक्ल के साथ सहयोगी संपादक।
बाल साहित्य – शहद की चोरी, अगर ऐसा होता, नल्लुराम।
नव-साक्षरों के लिए खुदा का घड़ा, हुड़क, मोबाईल देवता।
सम्मान/पुरस्कारः ‘व्यंग्यश्री सम्मान’ -2009, कमला गोइन्का व्यंग्यभूषण सम्मान 2009, संपादक रत्न सम्मान-2006; हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान-1997, अंतराष्ट्रीय बाल साहित्य दिवस पर ‘इंडो रशियन लिटरेरी क्लब ‘सम्मान1998
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जिंदगीनामा: पीढ़ियां आमने सामने में डॉ. प्रेम जनमेजय व लालित्य ललित, संचालक अलका अग्रवाल सिगतिया, सूत्रधार विवेक अग्रवाल