ऐसे समय में – कविता: मनोज शर्मा

ऐसे मौसम में हूं
कि अपने हाथों से
अपना चेहरा नहीं छू सकता
मिलना दूभर है साथियों से
क्या किसी स्वप्न में हूं…

ऐसे संधी-स्थल पर
बिना चीं-पुकार
गिनती बन गए
मुर्दा जीवन गिनना
दरअसल
आते-जाते श्वासों संग
अपनी ही चीत्कारें सुनना होता है

इस समय में
रगड़-रगड़ धोता हाथ
अपना होना परखता हूं
ऐसी पतझड़ में
अपनों की खोज-खबर
भौंडी औपचारिकता रह गयी है

कहते हैं
कल चाँद ऐसे खिला
कि धरती के काफी करीब आ गया
कल ऐसी सोयी पत्नी
कि सांझ तक
अपनी नींद को धन्यवाद देती रही

कल फिर मैंने
अकेले खाना खाया
कल फिर मैंने
मनुष्य होने की पीड़ा सही

चिरंतन काल से
एक ताल में बज रही है जिज्ञासा
किताबों में फड़फड़ा रही है
और गूँज रहा है
जीवन,निरंतर
अपने आगाज़ से ही बस
जो सीधी-सरल स्पष्टता चाहता है।

– मनोज शर्मा
प्रतिरोध की कविता के जाने-माने कवि।
एक्टिविस्ट पत्रकार – अनुवादक – कवि – साहित्यकार।
इनके काव्य संग्रह हैं, यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आऊंगा, बीता लौटता है और ऐसे समय में।
उद्भाव ना पल प्रतिपल आदि के कविता विशेषांक आदि में संपादकीय सहयोग।
इनकी कविताओं का अनुवाद डोंगरी पंजाबी मराठी अंग्रेजी आदि में।
संस्कृति मंच की स्थापना जम्मू में।
संप्रति नाबार्ड में उच्च पोस्ट पर।

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