कुशल है कोयल – कविता: मनोज शर्मा

अरण्य है और
सन्नाटे में
कूक रही है
कोयल

पसरी है जब घोर स्तब्धता
जब बचा ही नहीं कोई अर्थ
बचे नहीं हैं न्याय,अन्याय
तो,कैसे तोड़ रही है एकांत
कूकती कोयल

स्मृतियों में विचलित करती
समग्र समय में बेपरवाह
वह कूक रही है
क्या तुम कोइ दूत हो…

कोयल कूक रही है
जैसे
ऋषि कर रहा हो अनुष्ठान
जैसे आदेश,विचार,गणना हो कोई

सरकता है काल
कह रही है जैसे कूक
कोरे निर्णयों और नीतियों को
तकिया बनाने का युग नहीं है यह
डर
जब कल्पना से अधिक मारक हो
तब सुनो/फिर-फिर सुनो
यह मेरी कूक

हमारे मौजूदा सच
हमें कभी भूलने की अनुमति न देंगे
हम जो जीते हैं हर रोज़
उससे अगली ही सांस संग
मुंह मोड़ लेते हैं
जैसे भूख
जैसे सगे-संबंधियों की बेबस पड़ी राख

कूक रही है
कोयल निरंतर
और वह कुशल से है!

– मनोज शर्मा
प्रतिरोध की कविता के जाने-माने कवि।
एक्टिविस्ट पत्रकार – अनुवादक – कवि – साहित्यकार।
इनके काव्य संग्रह हैं, यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आऊंगा, बीता लौटता है और ऐसे समय में।
उद्भाव ना पल प्रतिपल आदि के कविता विशेषांक आदि में संपादकीय सहयोग।
इनकी कविताओं का अनुवाद डोंगरी पंजाबी मराठी अंग्रेजी आदि में।
संस्कृति मंच की स्थापना जम्मू में।
संप्रति नाबार्ड में उच्च पोस्ट पर।

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