तुम मेरी नदी हो! – कविता: मनोज शर्मा
हर लम्हा तुम
हर सपना तुम
हर फूल तुम
तुम मेरी उम्मीद हो
मेरी रातों में हो तुम
तुम्हीं हो
मेरे आकाश का चाँद
मेरी हंसी में
तुम्हीं ठहाका लगाती हो
तुम मेरी नदी हो
जो आवाज़
तमाम शोर में भी सुनाई देती रही
जो कुरेदती रही यादों को
बजती रही मंदिर की घंटी सी
उसका क्या कहूँ…
मेरी डायरी हो तुम
जिसे रोज़ लिखता हूँ
तुम वो हवा हो
जिसे पल-पल फेफड़ों में भरता हूँ
जब सूरज ढलता है
तुम्हारी आँखों के कोरों से चूता
उदासी का पीलापन
चौतरफा फैली घास को
गीला कर जाता है
तुम दोस्ती का ऐसा मानक हो
जिसे पुस्तकों में दोहराया जाएगा
तुम होती हो जहां भी
माटी प्रामाणिक हो जाती है
जब तुम मिली
माँ की तमाम लोरियाँ पूरी हो गयीं
होशमंद हुआ तथा लगा
इस दुनिया को
और खूबसूरत बना सकता हूँ
मैं!
– मनोज शर्मा
प्रतिरोध की कविता के जाने-माने कवि।
एक्टिविस्ट पत्रकार – अनुवादक – कवि – साहित्यकार।
इनके काव्य संग्रह हैं, यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आऊंगा, बीता लौटता है और ऐसे समय में।
उद्भाव ना पल प्रतिपल आदि के कविता विशेषांक आदि में संपादकीय सहयोग।
इनकी कविताओं का अनुवाद डोंगरी पंजाबी मराठी अंग्रेजी आदि में।
संस्कृति मंच की स्थापना जम्मू में।
संप्रति नाबार्ड में उच्च पोस्ट पर।