प्रेत – कविता: मनोज शर्मा

यह रात अंधियारी है
जड़ों तक फैली हैं बड़ की शाखाएं
और एक प्रेत उलटा लटका राहगीरों से पूछ रहा है सवाल
पूछता है जानते हो मुझे
मैं क्यूं हूं प्रेत…
और यह भी मुझसे बचकर कहां जाओगे…?

लोगों को जानने के
मेरे ये पहले-पहले दिन थे
मुझे केवल दोस्त, भाई, बहन, माता-पिता समझ में आते थे
मैं केवल कहानियों में ही डर सुना करता था
मुझे बताया गया था
प्रेत एक खास तरह का ज़ोखिम होता है
जो अपनी ज़िंदगी छोड़
ज़िंदगी आपकी में आना चाहता है
और इसे जीता-जीता
आपको ही दरकिनार करना चाहता है

अंधियारी है रात
चांद पंद्रह दिन बाद फूटेगा
कूक रहे हैं सियार
तथा उलटा लटका प्रेत पूछ रहा है
आप हैं कौन… मैं हूं कौन?

दरअसल हम अचानक भूल से
प्रेत के इलाके में चले आते हैं
और फिर
उसकी मारक गिरफ्त में आ जाते हैं

प्रेत जीता है भूत
यहां एक घातक गंध है
उसके नथुने महकाती
मौत खोले रहती है केश
और सन्नाटे की सबसे मशहूर नाईन
तेल झंसती जाती है

प्रेत पूरा दिन, पूरी रात दरख्त पर लटके उलटे
कहानियां बुनता है
जिन्हें अमूमन कोई नहीं सुनता है
दरख्त की शाखाएं उसे उकसाती हैं
फैलती जाती हैं…

साथियों!
मेरे सगे-संबंधों के सामने है प्रेत
और मुझे अपने तमाम डर झटक
आज ही सोचना है
कैसे किया जाए पलटवार
हुआ जाए कैसे इसकी पीठ पर सवार…

– मनोज शर्मा
प्रतिरोध की कविता के जाने-माने कवि।
एक्टिविस्ट पत्रकार – अनुवादक – कवि – साहित्यकार।
इनके काव्य संग्रह हैं, यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आऊंगा, बीता लौटता है और ऐसे समय में।
उद्भाव ना पल प्रतिपल आदि के कविता विशेषांक आदि में संपादकीय सहयोग।
इनकी कविताओं का अनुवाद डोंगरी पंजाबी मराठी अंग्रेजी आदि में।
संस्कृति मंच की स्थापना जम्मू में।
संप्रति नाबार्ड में उच्च पोस्ट पर।

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