जोरहाट – कविता: मनोज शर्मा

मिट्टी है चारों ओर
जन–जन के हाथ में मिट्टी है
यहाँ मिट्टी का ही मौसम है…

दूर तक फैला है
ब्रह्मपुत्र
बेड़े है
जो मिट्टी को कागज़ों में बदलने की कोशिश में हैं
यह कोई आविष्कार नहीं है

ताकतों का क्या कहें
दिव्यताओं का क्या कहें
कहीं नहीं गूंजती आवाज़ की खनक
कोई कुआँ है
जो सूख जा रहा है

मैंने अपनी बिटिया से कहा
जीवन
विद्रूपताओं को उधेड़ते जाना है
उसके कैनवेस में
रंग तब्दील होने लगे थे
वह अपनी तलाश को
उजास में भरने की कोशिश में
रो रही थी

सोच ओर धरती
एक साथ विकसित नहीं होते
सफलताएँ मोहताज हैं
तथा, चिक डालकर समय
जो गढ़ता है
ज़रूरी नहीं
वह, हमारा तुलसीचौरा बने

हालाँकि, मुझे लगा
मैं एक उपलब्धि की तरह
यहाँ आया
पहली नज़र में हालांकि
मिट्टी विनम्र मिली
ओर फिर मिले कुछ फफोले
इन्हें समय ने पैदा किया था

बंधू!
मिट्टी की है अपनी, याद्दाश्त
मिट्टी भी अक्सर मेहरबान नहीं रहती

बहुत कुछ उलझा हुआ है
खेत के खेत दर्ज हैं जहाँ
चढ़ता है ब्रह्मपुत्र
यहाँ कौन पूछता है
खोया है क्या
खामोश क्यों हो तुम
या फिर यह ही
तुम कौन से रंग
तलाश रही हो, बिटिया…

– मनोज शर्मा
प्रतिरोध की कविता के जाने-माने कवि।
एक्टिविस्ट पत्रकार – अनुवादक – कवि – साहित्यकार।
इनके काव्य संग्रह हैं, यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आऊंगा, बीता लौटता है और ऐसे समय में।
उद्भाव ना पल प्रतिपल आदि के कविता विशेषांक आदि में संपादकीय सहयोग।
इनकी कविताओं का अनुवाद डोंगरी पंजाबी मराठी अंग्रेजी आदि में।
संस्कृति मंच की स्थापना जम्मू में।
संप्रति नाबार्ड में उच्च पोस्ट पर।

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