पूरा ऐतबार होते ही : कविता – अलका अग्रवाल सिगतिया
पहले कभी ऐतबार ना हुआ,
चाहते हो मुझे इस क़दर टूटकर।
ऐसा तो नहीं कि चाहा नहीं तुम्हें
कभी, तुम्हारी तरह डूबकर
पर पूरी तरह डूबने से पहले
अविश्वास एक पनप जाता था।
तुमसे अलग होने का ख़्याल
दिल में न जाने क्यूं बरस जाता था
पर हर बार ख़याल ये
रेत के टीले के मानिंद बिखर जाता था।
हर बार तुम्हारी ओर वापस
रिवंची चली आती थी
तुम्हारे स्नेह की भीनी खुशबू
मेरे मन की धरती पर
हरश्रृंगार सी बिखर जाती थी।
पर फिर तादात्म्य होने लगा
मेरे मन का तुम्हारे मन से।
जब भी होती उदास, तुम्हें पाती अपने पास
जब भी होती खुश, महसूस करती तब भी तुम्हारा साथ।
सोचने लगी, मोहब्बत के गणित को पूरा कर लूं।
तुमसे बात दिल की कह दूं।
पर जिंदगी नेअचानक करवट ले ली है।
बिछुड़ रही हूं, तुमसे, तुमपर पूरा ऐतबार होते ही।
-अलका अग्रवाल सिगतिया
कहानी, व्यंग्य, कविता तीनों विधाओं में लेखन।
‘मुर्दे इतिहास नहीं लिखते’ कहानी संग्रह महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के प्रथम पुरस्कार प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित।
निरंतरा गोदरेज़ फिल्म फेस्टिवल में प्रथम।
फिल्म अदृश्य को राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स।
अनेकों पत्र पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित।फिल्म
टेलीविज़न धारावाहिकों व रेडियो के लिए लेखन।
अध्यक्ष राइटर्स व जर्नलिस्ट्स असोसिएशन महिला विंग मुंबई
निदेशक परसाईं मंच।
पुस्तकें – अदृश्य, मुर्दे इतिहास नहीं लिखते।
पुस्तकें संपादित – रंगक़लम, अप्रतिम भारत, मुंबई की हिन्दी कवयित्रियां आदि।
व्यंग्य संग्रह ‘मेरी-तेरी-उसकी भी’, कविता संग्रह ‘खिड़की एक नई सी’ प्रकाशनाधीन।
हरिशंकर परसाई पर लघु शोध प्रबंध। वर्तमान में शोध जारी।