एक आस जो टूटती नहीं : कविता – संध्या रियाज़
बंद दरवाजों के अन्दर
बंद हैं दो पीढ़ियाँ या
दो पीढ़ियों को जोडती दो कड़ियाँ
सोचती सोचती … पोछती भीगी आँखों को
कुछ आसपास देखने की तलाश में
इस दीवार से उस दीवार
इस दरवाज़े से उस दरवाज़े
आती जाती और फिर थक कर
उसी पलंग पर बैठ जाती
जिस पर कभी कहानियां सुनते सुनते
बेटा बेटी और पोता पोती बड़े हुए थे
और इतने बड़े की बड़ी दुनिया में
सुखों को तलाशते खो गए
छोड़ गए पीछे अकेले इन दो अपनों को
जो आज न देख कर भी देख लेते है
अँधेरे में आसपास अपने दिल के टुकड़ों को
न सुन कर भी सुनने लगे हैं
उन अपनों की हंसी और किलकारियों को
कुछ रंग भरे सुख
कुछ खट्टे मीठे पल
कुछ त्यौहार कुछ तकरार
कुछ आशाएं कुछ प्यार
लेकिन
बाँध कर भी ना बाँध पाए थे वो किसी को
टूटी माला से छूटते मोती से
बिखर कर खो गए थे वो
और अब ये इक आस बांधे
टूटी माला के उस धागे को थामे
अब भी एकटक दरवाज़ा देखा करते हैं
शायद उनकी याद आ जाए किसी को
आयेंगे तो बाँध लेंगे उन्हें वो वापिस
मोतियों को जोड़ जोड़ के इसी धागे में पिरो
घर की एक माला बना लेंगे वो
पल बीते, दिन बीते, सालों गुज़र गए
बूढ़े हाथों की सूत सी लकीरें
उस धागे में लिपटी जरर जरर हो चली थीं
उन्हें पता है मोह उनका उनके साथ खत्म हो जायेगा
लेकिन कोई अब उनका उन्हें पूछने नहीं आएगा
ये सच जानते है लेकिन
खुद को झूठा साबित करने की कोशिश में
हर दिन जीते मरते टकटकी लगाये
तकते तकते सो जाते हैं
शायद आज नहीं वो कल उनको लेने आयेंगे
संध्या रियाज़ कवयित्री व लेखिका हैं।
संप्रति: आईडिएशन एंड डेवलमेंट हेड, क्रिएटिव आई लि.
संपर्क: 09821893069, sandhya.riaz@gmail.com
पूरे परिचय हेतु क्लिक करें – https://www.anoothaindia.com/profile-sandhya-riyaz/