स्वामी विवेकानंद के विचार: धर्म

  • आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकल कर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।
  • जब तक तुम्हें भगवान तथा गुरू में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। इनमें से एक भी नष्ट होने पर परिणाम विपत्तिजनक है। (वि.स.4/339)
  • जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किंतु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है, वही धार्मिक है। (वि.स.1/380)
  • जो सत्यद्र्ष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हे नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म-जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगे। (वि.स. 4/337)

देवदूत कभी बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते।

  • धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। (वि.स.1/380)
  • न टालो, न ढूँढों। भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भी है, उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है। (वि.स. 4/348)
  • प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़ कर कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। (वि.स.1/350)
  • बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः-बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए आगे बढ़ना-यही मेरा धर्म है। मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है। यही मेरा धर्म है।” (वि.स.4/328)
  • योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, ” जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह प्रमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसीका प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्य्क्ष आचरण नहीं करता। (वि.स.4/337)
  • संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है।

संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।

  • हैरान होने से काम नहीं चलेगा। ठहरो-धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है। तुमसे कहता हूँ देखना- कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो। बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो। यदि आवश्यक हो तो “सार्वजनीनता” के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोड़ना होगा। मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि सार्वजनीनता – हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, “दूसरों के धर्म का द्वेष न करना”; नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उनका ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना-इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उनकी कृपा से सब ठीक हो जायेगा।

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