विधवा : कविता – संध्या रियाज़

मत छीनों उन चूड़ियों को
जिन्हें सुहाग की निशानी मान
पहनाया था उसने
देखो बिंदिया के हटते ही
माथे की सिलवटों ने
उसका नसीब कह डाला
जीवन अधूरा है इसका
जब से वो छिना है इससे

सुनो रहने दो उसके पास
उसकी यादों की सौगात
उसकी एक एक छाप
जो छपी है उसके शरीर के
अलग अलग हिस्सों में
देखी और अनदेखी
क्या दिल से भी खरोंच लोगे
क्या इतना भी हक़ न दोगे

माथे पे बिंदिया का दाग
उस दाग का अहसास
उतारी गई चूड़ियों के
टूटे नुकीले कांच
कांच से चुभे खून के दाग
बेबस आंखों में छिपे
सालों साल के जज़्बात
कैसे सब छीन पाओगे

जीना हक है उसका जीने दो
तुम क्या जानो जो मर चुका
वो तो अब भी
जीता है उसके साथ
रस्मों से परे
विधियों को भेद कर
देखता है उसे अब भी
बिंदी चूड़ी रंगों के संग
तुम ऐसी सुहागन पर
विधवा का रंग कैसे चढ़ाओगे
एक सुहागन को विधवा कैसे बनाओगे।

संध्या रियाज़ कवयित्री व लेखिका हैं।
संप्रति: आईडिएशन एंड डेवलमेंट हेड, क्रिएटिव आई लि.
संपर्क: 09821893069, sandhya.riaz@gmail.com
पूरे परिचय हेतु क्लिक करें – https://www.anoothaindia.com/profile-sandhya-riyaz/

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