मनुष्यता के प्रति गहरी सहानुभूति दिखाती कविताएं संध्या रियाज़ की
कवयित्री लेखिका संध्या रियाज़ के लेखन पर कुछ वरिष्ठ लेखकों – साहित्यकारों की कलम चली है। उनके उद्गार जस के तस आपके लिए प्रस्तुत हैं। – संपादक, अनूठा इंडिया
मनुष्यता के प्रति गहरी सहानुभूति दिखाती कविताएं – डॉ करुणाशंकर उपाध्याय
मुझे यह जानकर अत्यंत हर्ष हो रहा है कि कंवयित्री संध्या रियाज़ का दूसरा काव्य संकलन “टिकी दोपहरी” नाम से प्रकाशित हो रहा है। इनका पहला काव्य संकलन “बदलती लकीरें” 2016 में प्रकाशित हुआ जिसे पर्याप्त यश मिला था। “टिकी दोपहरी’ अत्यंत व्यंजक शीर्षक है जो मौसम की सापेक्षता में अर्थ निर्धारित करता है। यदि दोपहरी सर्दी की है तो सुखकर और प्रीतिकर है। यदि गर्मी की है तो दाहक और संतप्त करने वाली हैं। कहने का आशय यह है कि यह संदर्भ सापेक्षता पर निर्भर करेगा कि हम शीर्षक का अर्थ जीवन के परिपक्व और प्रौढ़ वय के संघर्ष और कष्टों से जोड़कर देखें।
प्रस्तुत संकलन में 65 कविताओं का समावेश है जो 65 विषयों पर लगभग इतने ही तरीके से प्रस्तुत की गई हैं। इस दृष्टि से विषयगत वैविध्य और वैविध्यपूर्ण प्रस्तुति विवेच्य संकलन की केंद्रीय विशेषता है।
ये कविताएं मुक्त छंद, छंदबद्ध, गीत एवं प्रगीत, शेर एवं ग़ज़ल जैसे अनेक काव्य रूपों में प्रस्तुत हुईं हैं। कवयित्री ने अपने निजी एकांतिक और जागतिक अनुभवों, आसपास के परिवेश, देश और समाज में घटित हो रही घटनाएं तथा मनुष्यता के प्रति गहरी सहानुभूति के साथ इन घटनाओं को प्रस्तुत किया है। फलतः ये कविताएं संदर्भ बहुलता से भी युक्त हैं।
इस संकलन में “विधवा” शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियां अत्यधिक मार्मिक बन पड़ी हैं जिसमें विधवा की घनीभूत त्रासदी अभिव्यक्त हुई है।”
मत छीनों उन चूड़ियों को
जिन्हें सुहाग की निशानी मान
पहनाया था उसने
देखो बिंदिया के हटते ही
माथे की सिलवटों ने
उसका नसीब कह डाला
जीवन अधूरा है इसका
जब से वो छिना है इससे
सुनो रहने दो उसके पास
उसकी यादों की सौगात
उसकी एक एक छाप
जो छपी हैं उसके शरीर के
अलग अलग हिस्सों में
देखी और अनदेखी
क्या दिल से भी खरोंच लोगे
क्या इतना भी हक़ न दोगे।”
इसी क्रम में ‘माँ माँ होती है ‘शीर्षक कविता में माँ के प्रति कवयित्री की संवेदन बड़ी गहराईयों से व्यक्त हुई है। माँ कितनी भूमिकाओं में होती है और वो हर चुनौतियों का सामना कैसे करती है और उसका व्यक्तित्व जाति, धर्म,समाज से भी कितना व्यापक होता है उसकी चर्चा इस कविता में हुई है। इस दृष्टि से इस कविता की ये पंक्तियां दर्शनीय बन पड़ी हैं:-
“माँ का कोई सरनेम नहीं होता
न माँ का कोई धर्म होता है
माँ तो हमेशा माँ ही होती है
हर जाति धर्म में वो माँ होती है
किसी भी भाषा को बोले तब भी
कोई भी पोशाक को पहने तब भी
बुर्के वाली माँ भी माँ होती है
साड़ी वाली माँ भी माँ होती है।”
उसके उपरान्त “आत्मसात”, “उन बच्चों की जानते हो क्या”, “सुनो मन”, “जब जन्मे तो रोये थे क्या” जैसी कविताओँ में अलग अलग जीवन संदर्भों और परिस्थितियों को रेखांकित किया गया है।
“मैं एक औरत हूँ” शीर्षक कविता में नारी जीवन के सम्पूर्ण सांसारिक संघर्ष को प्रस्तुत किया गया है। “नींद न जाने अब क्यों नहीं आती”, “मैं हूँ कुछ हो तो बताना”, “वो कौन थी” जैसी कविताएं जीवन के विशिष्ट संदर्भों का चित्र प्रस्तुत करती हैं। “किरदार” शीर्षक से छोटी ग़ज़ल की प्रस्तुति हुई है और “बेटियां”शीर्षक से नवगीत भी। बेटियों के प्रति कवयित्री ने बहुत ही मार्मिक और रमणीय पंक्तियाँ लिखी है जो इस प्रकार हैं :-
“बेटियां फूलों की पंखुरी सी
बेटियां ओस की बूंदों सी
बेटियाँ लाज के घूँघट सी
बेटियां कांच की चूड़ियों सी
गोद में रहकर भी
माँ के गालों को लाड करती हैं
बाबा की गोद को सिंघासन समझती हैं
बिना बोले दिल की बात बतातीं हैं
हाथ जो छोडो तो डर जाती हैं
पर दूर जाके भी वो साथ निभाती हैं
बेटियां हैं मेरी अनेक बेटों से भली
बेटी होके भी बेटों का फ़र्ज़ निभाती हैं
सर से उठा था जब उनके बाबा का हाथ
न जाने अचानक वो कैसे बदल गयीं हैं
आंसूओं को छिपाना सीख लिया है उनने
माँ को टूटने से रोक रक्खा है उनने
छुई मुई थीं कभी अब हिम्मत बड़ी हैं
बाबा का नाम जोड़ के देखो अडिग खड़ीं हैं।”
कवयित्री ने अपने जीवन के अनुभवों, चिंतन और देश एवं समाज के बदलते परिवेश को अनेक कविताओं में चित्रित किया है। इस दृष्टि से “क्यों न फिर ऐसा हो”, “अब जिनमें तो ज्ञानी न बनें”, “छोटे छोटे घर छोटे झरोखे”, “चले गए तो याद बहुत आते हो”, “एक रोज़ जब मिले थे”, “पाना या खोना दोनों एक हैं” तथा “वक़्त ने मुझसे कहा” जैसी कविताएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसी क्रम में ‘पापा की बेटी ‘शीर्षक कविता अत्यंत रमणीय और आत्मीय बन पड़ी है। इसमें बेटी के प्रति पिता का वात्सल्य और पिता के प्रति बेटी की अनगढ़ भावना पूरी सहजता के साथ चित्रित हुई है। कवयित्री ने बेटी को बेटों के समानांतर प्रस्तुत करके समाज के असमान व्यवहार को उजागर करने का प्रयास किया है।इस मानक पर यह स्त्री विमर्श की कविता बन पड़ी है। उसमें लिखा है कि:-
“बेटों के बदलने की आज रफ़्तार बढ़ गयी है
बुढ़ापे की वो लाठी अब औज़ार बन गयी है
बेटियां धन पराया ये कह के मत जताना
वो आज इस फर्क को खुद मिटा रही हैं
बेटा बनके बेटियां घर का मान बन रही है।
और वक़्त पड़े अगर तो बेख़ौफ़ लड रही हैं।”
इसके बाद “एक लड़की छुई मुई सी”, “वक़्त बदलता है”, “रिश्ते की नापतौल”, “औरत माँ बेटी या बीवी”, “नौकरी”, “ऐ माँ तुम मेरी हो”, “रद्दीवाला” तथा“न जाने क्या हुआ” जैसी कविताओं में समकालीन जीवन और समाज के विशिष्ट संदर्भों को उजागर किया है। “शहर में बसे हुए गांव” कविता देश में बढ़ रहे शहरीकरण और महानगरीकरण से उत्पन्न खतरे से आगाह कराने वाली कविता है।हम जैसे-जैसे महानगरीय दबावों के चलते गांवो से दूर हो रहे हैं वैसे-वैसे हमारी संवेदना का तंतु भी सिकुड़ता जा रहा है। इसके साथ ही “फिर मिलो अजनबी की तरह” एक बेहतरीन ग़ज़ल है यह कविता के दूसरे क्षेत्रों में भी संध्या रियाज की गति का द्योतक है। कवयित्री ने “नया साल”, “गुब्बारे”, “वो एक अपना गया”, “जुगनू”, “नेकियाँ”, “क्यों”, “जो खोया, “कौन हैं हम” जैसी कविताओं के द्वारा अपने जीवन के अनुभवों और उन अनुभव से प्राप्त संवेदना को विस्तार दिया है। “सींच दो मिट्टी”, “कौन है वो”, “खोलो आंखें”, “याद रखना मुझे”, “बेगाना”, “माँ का अंश” जैसी कविताएं ज़िन्दगी के प्रति कवयित्री की विकसित समझ को प्रस्तुत करती है। यहाँ एक कविता “मैं एक औरत हूँ” एक औरत के मन की बात कहती है जो दिल तक पुहुन्चती हैं।इस संकलन की कवितायेँ जीवन के प्रति स्वीकृति का भाव भरती है। कवयित्री के नारी संबंधी दृष्टिकोण को उजागर करने की दृष्टि से यह कविता विशेष रूप से उल्लेखनीय है:-
“तुमने लाल चुनर के साथ
उड़ा दी घर की जिम्मेदारियां
घूंघट से छिपा दी मेरी पहचान
मेरा नाम और मेरे अरमान
माँ बाप की सीख देहरी पार छूट गयी
और एक होते ही मैं,
खुद से खो गयी
तुमने फिर अपने घर में पैदा किया मुझे
सीखना थे अब तुम्हारे घर के संस्कार
तुमसे जुड़ी परंपरा के आचार विचार
घर के हर रिश्ते को बाँधना था मेरा कर्म
हर कसौटी पे खरा उतारना था मेरा धर्म
तुम दूर खड़े आंकते रहे
मेरा परिणाम…
तुमने जुड़ते ही कर दिया था मुझको अलग
भागना चाहती हूँ मैं हर दिन की परीक्षा से अब
ले लो वापिस ये बन्धनों से बंधा अपना प्यार
ये सारे अधिकार जो मेरे लिए कर्त्तव्य हैं
मुक्त होना चाहती हूँ अब इस भ्रमित रूप से
तुमने कहा था तुम हो पर
तुम कहाँ हो…?”
ऐसा माना जाता है कि हर रचनाकार पर उसके बचपन का प्रतिबिंब अंकित होता है तो कवयित्री ने भी “बचपन” शीर्षक कविता के द्वारा जीवन के उस प्रसंग को दोबारा रचने का प्रयास किया है। इसके बाद “दिए बुझा दो”, “हौसला”, “रात”, “मेरा अंश” जैसी महत्वपूर्ण कवितायें हैं। “बुलंदी” तीन शेर की छोटी किन्तु सुंदर ग़ज़ल है, “एतवार” चार शेर की अत्यंत महत्वपूर्ण ग़ज़ल है उसी तरह बेपर्दा, ग़ैर, ताकीद जैसी रचनाये जो संध्या रियाज़ के संवेदनशील मन का परिचायक हैं अपनी प्रस्तुति में आकर्षक बन पड़ी हैं।
इस संकलन के अंत में ‘इज़हार कर दे ‘शीर्षक में अत्यंत सुंदर ग़ज़ल प्रस्तुत हुई है जिसमें कवयित्री दिल के गहरे जुड़ाव और प्रेम की अतल गहराईयों का इज़हार करने का आग्रह करती हैं। प्रेम में भी संवाद क्यों जरूरी है? इस बात को तार्किक परिणति तक पहुँचाने का सफल प्रयास इस कविता में हुआ है। इसमें लिखा है :-
“मोहब्बत दिल से करते है पता है मुझको मगर
कहीं रुसवा न हो जाऊं ज़बां से ऐलान कर दे।
जो दिल से जुड़ते है मरते दम साथ रहते हैं
यकीं है इस बात का तो इस रिश्ते को आम कर दे।
बन्द दरवाजों में छिपे वादों को अब आज़ाद कर
मोहब्बत है अगर सच्ची तो अब इज़हार कर दे।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि “टिकी दोपहरी” कवयित्री संध्या रियाज़ के जीवनुभव और परिपक्व सोच की अभिव्यक्ति है। कवयित्री ने निजी अनुभव, स्त्री के प्रति विशिष्ट दृष्टिकोण तथा आसपास घटनाओं के प्रति अपनी संवेदना को अत्यंत संजीदगी और सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। इस संकलन की सारी कविताएं बेहद पठनीय, सहज, सरल और सुबोध हैं। ये सगेपन का अहसास कराती हैं और पाठक के दिल में सीधे उत्तर जाती हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हिंदी जगत टिकी दोपहरी का खुलेपन से स्वागत करेगा और ये संकलन अपने नाम के अनुरूप लोगों के मन पर लंबे समय तक टिका रहेगा।
डॉ करुणाशंकर उपाध्याय
डीन एवं प्रोफेसर हिन्दी विभाग
मुम्बई विश्वविद्यालय
मुम्बई 400098
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हर पंक्ति में मीठी सुधि का पक्षी उड़ता आता है, पंख फड़फड़ा कर उड़ जाता है – माया गोविन्द, कवियित्री एवं गीतकार
हिंदी साहित्य में कवयित्रियों का अभाव हो, ऐसा नहीं है। आज अधिकतर नारियां अपने विचारों को व्यक्त करने लगी हैं –क्यूँ की विचारों को व्यक्त करने में पहले पुरषों का, समाज में रूढ़िवादी विचारों का बोलबाला था। अब नारी अपने अंतर्मन की कल्पनाओं, पीड़ाओं, दुखों, सुखों को अपने ह्रदय पटल के केनवास पर उतारते उतारते कागज़ में कलमबद्ध करने में भी प्रवीणता प्राप्त कर रही हैं वो भी एक ऊर्जा के साथ – जहाँ कोई बंधन नहीं है कोई रोक टोक नहीं हैं। विचारों के झरने नदी बनकर बह रहे हैं।
वैसे ही एक सामर्थ्यवान कवयित्री संध्या रियाज़ हैं जो अपनी भावनाओं के आकाश से प्रकाश किरणों की भांति शब्दों के माध्यम अपने भाव बिखेर रही हैं और हम भावनाओं से प्रकाशित आकाशगंगा में स्नान करके मन को पावन कर रहे हैं।
संध्या की कविताएं कुछ ऐसी हैं जैसे कोई रोग निवारक चारागर के दर्शन कराता है। ज़्यादातर कवितायें दर्द में डूबी हैं पर वे चिकित्स करती हैं, घायल, बीमार मन को। संध्या की पहली पुस्तक “बदलती लकीरें” भी भावनात्मक स्तर पर बहुत ही सुन्दर कृति है। “टिकी दोपहरी” दूसरा संग्रह है जो छंदबद्ध, कहीं कहीं छंद रहित है और अतुकांत भी – कवितायें अधिकतर बहुत ही आकर्षक परिवेश में प्रकट हुई हैं।
संध्या की पुस्तक, एक आयने सी कहीं कहीं मार्गदर्शन कराती हुई, कहीं कहीं संवेदनाओं के फूल खिलाती हुई और अधिकतर अतीत को अपनी मुट्ठी में छुपाए, स्मृतियों के घेरे में अपने अस्तित्व को समेटे, काटों से भरे रास्तों पर अनोखी मंजिल की ओर बढ़ती जा रही हैं। एक कविता पढ़िए तो तुरंत दूसरी कविता पढ़ने की ललक जाग उठती है – बेटियों पर लिखी कविता- उपमाओं से भरी हुई बहुत सुन्दर कविता है।
“बेटियां फूलों की पंखुरी सी
बेटियां ओस की बूंदों सी
बेटियाँ लाज के घूँघट सी
बेटियां कांच की चूड़ियों सी”
एक रचना मुझे बेहद पसंद आयी उसका ज़िक्र करना आवश्यक है – “रद्दीवाला”- ये पूरी पढ़ने से ताल्लुक रखती है। इतना गहरा व्यंग, इतनी सुन्दर व्याख्या, ये कवयित्री के सामर्थ्य को उजागर करती है।
स्मृतियों से बाहर निकलना संध्या के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा लगता है हर पंक्ति में मीठी सुधि का एक पक्षी उड़ता हुआ आ जाता है और पंख फड़फड़ा कर उड़ जाता है। संध्या उस स्मृति के पक्षी को पकड़ने दौडती है फिर सच्चाई के धरातल पर आकर आगे की पंक्ति लिखने में वो खो जाती है।
वो कौन थी? कविता की एक पंक्ति इतनी भावपूर्ण और गहरी है की मन मुग्ध हो जाता है। इतनी सुन्दर उपमा भावों से भरी हुई –
“सीने में पत्थर जड़के अब उलटी नदिया तैर रही थी”
इसी के साथ साथ कई कविताओं में मर्म गहरा है पर सादगी से की गयी अभिव्यक्ति दिल को छू लेती है –
जैसे – उन बच्चों को जानते हो क्या?, पाना या खोना दोनों एक हैं, रिश्तों की नाप तौल, ऐ माँ तुम मेरी हो, गुब्बारे आदि बहुत ही मार्मिक कवितायें हैं। जिन्हें, मुझे लगता है – पाठक बार बार पढ़ना चाहेंगे। सारी कवितायें अंतर्मन के दर्द को निचोड़ कर लिखी गई हैं।
मुझे आशा ही नहीं विश्वास है कि “टिकी दोपहरी” साहित्य जगत में भी बहुत सराही जायेगी। मेरा आशीर्वाद है कि संध्या यूँ ही रचनाएं लिखती रहें और यशवान हों।
शुभकामनाओं सहित
माया गोविन्द
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सहज और सरल कविताएं – असग़र वजाहत
आज की कविता के परिद्रश्य में संध्या रियाज़ की कवितायेँ अधिक सच्चाई, सहजता और सहृदयता का आभास कराती हैं। समकालीन कविता ने कलात्मक अभिव्यक्ति और संप्रेषण के कई चरण तये किये हैं। हमारे बीच ऐसे कवि हैं जिन्होंने हिंदी कविता के परिदृश्य को व्यापक बनाया है। लेकिन हिंदी की समकालीन कविता की एक धारा कहीं न कहीं ओढ़ी हुयी बौद्धिकता और जटिलता से ग्रस्त है कुछ कवि संभवतः यह मान कर चलते हैं कविता बौद्धिकता प्रधान होनी चाहिए। यही कारण है की कविता ह्रदय से दूर बौद्धिकता से बोझिल दिखाई पड़ती है। इस परिप्रेक्ष्य में संध्या रियाज़ की कवितायें अपनी सहजता और सरलता के कारण आकर्षित करती है।
संध्या गत कई वर्षों से या कहना चाहिए स्कूल और कॉलेज शिक्षा काल से ही कविताएं लिख रही हैं। उन्होंने यह प्रयास नहीं किया है की कविताओं के चलताऊ मुहावरों का लाभ उठाकर कवियों की उस पंक्ती में सम्मलित हो जाए जिसने कविता की सच्चाई को समाप्त कर दिया है।संध्या अपने आतंरिक भावनात्मक दबाव और सामाजिक अन्तःविरोधों के कारण कविताएं लिखती रही हैं। ये उल्लेखनीय है की उन्होंने लगातार अपनी यात्रा को जारी रखा है।
प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में अनुभव और भावनात्मक संघर्षों का समागम देखने को मिलता है। पारिवारिक जीवन संध्या के काव्य जगत का एक महत्वपूर्ण आयाम है। उन्होंने माँ पर एक बहुत अच्छी कविता लिखी है जो संबंधों की घनिष्ता और गहराई को कलात्मक ढंग से सामने लाती है। इन कविताओं में छोटे बड़े प्रसंगों अलग ढंग से सामने आते है। भाषा की सरलता और बिम्बों का नयापन अभिव्यक्ती को निखारता है। संध्या की कविताएं जीवन के उन हिस्सों को एक दृश्य बनाकर सामने ला देती है जिनपर कई बार हमारी नज़र जाती है पर सोच नहीं जैसेइनकी एक कविता “डर”
मुझे डर लगता है उस दिन से
जब सब डरने लगेंगे
एक दुसरे से
रोटी से ..पानी से
और
अपने ही जिस्म के हिस्सों से
उफ़!
इसी तरह उनकीं कविता “पागल” बड़ी आसानी से सटीक प्रहार करती है।
वो सामाजिक प्राणी की तरह समय और परिस्थिति अनुसार
कुछ करते धरते कहते नहीं
कहीं भी किसी की भी पोल खोल देते हैं
बड़े अजीब होते हैं ये पागल
टूटे हुए बाँध से बहती इनकी सभी भावनाएं
उन्हें पागल बनाती हैं
संध्या की कविताओं के विषय अपने आप में एक सोच देते है जैसे “ एक लड़का “, बेजान दरवाज़ा, डर, भूख, अनजान शहर या एक सुकूं। आशा है संध्या रियाज़ की कविता यात्रा आगे बढ़ती जायेगी। अभी उनके सामने अनगिनत मंजिले हैं।
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गहन अनुभूतियों, संवेदनाओं और जीवन मूल्यों की व्याख्या – राम गोविंदजी, लेखक एवं शोधकर्ता
संध्या रियाज़ का ये दूसरा काव्य संग्रह है। संध्या रियाज़ गहन अनुभूतियों, संवेदनाओं और जीवन मूल्यों की व्याख्या सहज भाव से सरलता के साथ करने में सक्षम हैं। कभी कभी विद्रोह का स्वर भी मल्हार हो उठता है। वो अपनी मान्यताओं, अपनी मर्यादा का सम्मान रखती हैं किन्तु अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा का अपमान भी सहन नहीं करती। अपने प्रथम काव्य संग्रह “बदलती लकीरें” से ही अपना एक स्थान बना लिया है।
उसके पाठक भी खासे हैं और श्रोता भी। जीवन्तता का सम्मान करने वाले पाठक संध्या के इस काब्य संग्रह “टिकी दोपहरी” को अवश्य सराहेंगे। संध्या मुझे पापा कहती है और मेरी बेटी है। उसकी इस दूसरी काव्य कृति के लिए सस्नेह आशीष भी और मंगलकामना भी।
राम गोविन्द, 3 शेरटन, 10वां रास्ता
जुहू परले स्कीम – मुंबई 400053
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आंतरिक भावनाओं का शाब्दिक श्रृंगार – अभिलाषजी, कवि – गीतकार
निज मन की वेदना-संवेदना, कुंठा-पीड़ा प्रसन्नता के साथ समस्त आंतरिक भावनाओं का शाब्दिक श्रृंगार करके उन्हें कविताओं का सुंदर आवरण पहनाकर बाह्य जगत के समक्ष प्रकट करना अपने आप में एक गूढ़ विद्या है… एक अनूठी कला। इस कला, इस विद्या में पारंगत होना उसी के लिए संभव है, जो संसार में जिया नहीं अपितु जिसने संसार को जिया है …जिसने दूसरे की भावनाओं को अनुभव किया हो। मानस के प्रत्येक क्रिया कलाप, विषाद और संताप का विष पिया हो। जो वर्तमान के धरातल पर खड़ा होकर समय को अतीत में ढलता और भविष्य में पलता देख सकता हो और ये इतना सहज सरल नहीं है, बहुत कठिन है …इस एक जीवन में कई कई जीवन, इसी के रंग रूप में ढलकर जीना सबके लिए संभव नहीं …ये किसी योगी -तपस्वी ब्रह्मलीन साधक के लिए ही संभव है .. और ये भी एक सत्य है हर निष्ठावान रचनाकार, रचना रचते समय एक अज्ञात अवस्था में उसी सृष्टा के निकट जा पुहुँचता है – जिसने इस सृष्टि को रचा है। इस संदर्भ में वो रचनाकार स्त्री हो या पुरुष – इससे कोई अंतर नहीं पड़ता -दोनो एक समान हैं। इसी समानता की कड़ी में मुझे की कवियों -कवियित्रियों की रचनाओं का सुस्वादन का अवसर मिला है – जिसमें एक हैं सुश्री संध्या रियाज़ …।
अपने मनोभावों को काव्य संग्रह का रूप देकर ये पहले भी सभी पाठकों के सामने आ चुकी हैं। मैं वर्षों से इन्हें व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ …परंतु उनका ये नया काव्य संग्रह शीर्षक “टिकी दोपहरी” में टिका उनका एक नया ही व्यक्तित्व सामने आया है जिसमें विकलता, विफलता, विनम्रता, अनुरोध और विरोध के स्वर स्पष्ट रूप से सुनाई देते हैं…वो अपनी कविता विधवा में कहती हैं
सुनो रहने दो उसके पास
उसकी यादों की सौगात
उसकी एक एक छाप
जो छपी है उसके शरीर के
अलग अलग हिस्सों में
देखी और अनदेखी
क्या दिल से भी खरोंच लोगे
क्या इतना भी हक़ न दोगे
अपनी एक अन्य कविता “माँ माँ होती है ” में तो वो ममतामयी माँ को अपने ही ढंग से परिभाषित करती हैं।
माँ का कोई सरनेम नहीं होता
न माँ का कोई धर्म होता है
माँ तो हमेशा माँ ही होती है
हर जाति धर्म में वो माँ होती है
किसी भी भाषा को बोले तब भी
कोई भी पोशाक को पहने तब भी
बुर्के वाली माँ भी माँ होती है
साड़ी वाली माँ भी माँ होती है
सुश्री संध्या रियाज़ स्वयं एक माँ हैं …माँ की करुणा उसकी पीढ़ा और उसके अतिनाद को उन्होंने गहरे से अनुभव किया है – तभी वो शब्दों को यूं पिरो सकीं -एक ओर प्रश्न को आत्मसात करती हुईं वो अपनी कविता आत्मसात में कहती हैं।
प्रश्न का उत्तर प्रश्न से पूर्ण नहीं होता
इस छोर से उस छोर मान सम्मान से घिरे
अनेकों अवरोधों को करते हुए पार
क्या अपना पाओगे ? तो मैं हूँ
तुम से तुम तक प्रारम्भ से अंत तक
तुममे विलीन सदा निरंतर आत्मसात
दुनिया में मर्द और औरत का सामान अधिकार होना चाहिए लेकिन ये सच पूरी तरह कभी किसी भी समाज ने नहीं अपनाया। हर बार औरत को प्रश्न के उत्तर देने होते हैं। परिस्थियाँ हम उन्हें देते हैं और फिर खुद उनसे प्रश्न पूछते हैं जैसे एक मालिक का पूछता है रुत्वे के साथ, कभी प्यार जताते हुए, तो कभी रोष दिखाते हुए लेकिन हर बार कटघरे में औरत को खड़ा कर देते है। सुश्री संध्या रियाज़ की ये पंक्तियाँ उसी तरफ इशारा करती हैं
औरत एक नायाब करिश्मा है मालिक का
मत पूछो जिससे अब, की
कौन है वो ?
मैं कौन हूँ आखिर ?
तब उसका ये प्रश्न
उससे जुड़े सारे रिश्तों के रंगों को
धो देगा और वास्तविक प्रश्न
फिर वास्तव में जन्मेगा
की वो कौन है ?
कवियित्री कभी अपने ही मन से विलग होकर अपने ही मन से पूछती हैं
सुनो मन क्या तुम्हें उदास होने की बीमारी है
क्यूँ बेवझा उदास हो हो कर
घर की चार दीवारी से लड़ जाते हो
एक और कविता की बानगी देखिए जिसमें एक नया भाव नज़र आता है
वो अब भी एक टक दरवाज़ा देखा करते हैं
शायद उनकी याद आ जाए किसी को
आयेंगे तो बाँध लेंगे उन्हें वो वापिस
मोतियों को जोड़ जोड़ के इसी धागे में पिरो
घर की एक माला बना लेंगे वो
पल बीते, दिन बीते, सालों गुज़र गए
बूढी हाथों की सूत सी लकीरें
उस धागे में लिपटी जरर जरर हो चली थीं
और किसी बहुत ही अपने को …अपने ही जिस्म के किसी हिस्से को खो देने पर वो कह उठती हैं
सजाया था जो घर संसार
दिल के रंगों से थी बहार
मेरे आंसुओं को ख़ुशी देता था
वो मेरा था बस मेरा था
भूलें तो कैसे भूलें हम
कवियित्री सुश्री संध्या रियाज़ पूरा व्यक्तित्व उनकी कविताओं में जैसे ढल सा गया है …उनके शब्द स्वयं ही अपना अर्थ, अपने समर्थ होने का दम भरने लगते हैं …उनके विषय में कहने को तो बहुत कहा जा सकता है संक्षिप्त में कहें तो वो युवा पीढ़ी के एक वर्ग की नुमाइंदगी करती नज़र आती हैं …जिनकी आंखों में कई सपने, मन में कई भाव अंगडाई लेते हैं उनकी लेखनी सदा यूँ ही चलती रहे प्रभु से यही प्रार्थना है …और हम कवि हृदय की इन्हें शुभकामनाएं हैं।
अभिलाषजी
कवि एवम फिल्म गीतकार
(इतनी शक्ति हमें देना दाता)
(संसार है इक नदिया दुःख सुख दो किनारे हैं)