मुर्दे इतिहास नहीं लिखते – एक उल्लेखनीय कहानी-संग्रह

हिंदी कहानी के विकास में अनेक कहानीकारों का योगदान रहा है। अनेक कहानीकारों ने अपने समय के विविध रंगों से कहानियों की दुनिया को सजाया।

समय की दो विशेषाताएं कहानीकारों की कहानियों में देखी जा सकती है कि एक तो बहुत तेजी से समय बदलता है, किंतु इस बदलाव में भी बहुत सी बातें बहुत सी यादें जैसे ठहर सी जाती है। दूसरा बदलता हुआ समय धीरे-धीरे एक ऐसा इतिहास भी रचता है, जिसे इतिहास अपने में दर्ज करता है किंतु इसी इतिहास के बहुत से पन्ने जो इतिहास में दर्ज नहीं होते, वे साहित्य में दर्ज किए जाते हैं।

‘मुर्दे इतिहास नहीं लिखते…’ अलका अग्रवाल सिग्तिया का कहानी संग्रह है। अलका ने कहानियां बहुत पहले लिखी किंतु वे संग्रह के रूप में बहुत बाद में आईं। यह संग्रह भी 2015 में प्रकाशित हुआ, किंतु मेरे हाथों बहुत बाद में दूसरा संस्करण 2016 लगा।

ज्ञानरंजन जी ने भूमिका में लिखा है- ‘इन कहानियों को 10-20 वर्ष पहले अपने युग में ही छप जाना चाहिए था तब इनमें समकालीनता बेहतर मिलती, पर ये कहानियां तब छप रही हैं जब अलका का दूसरा संग्रह आ जाना चाहिए था।’

यह कहानी संग्रह आधुनिकता की आंधी में मुर्दा होते लोगों के बीच जिंदा लोगों की खासकर स्त्रियों के जीवन संघर्ष का एक ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जो अपने आप में एक इतिहास है।

शीर्षक कहानी- ‘मुर्दे इतिहास नहीं लिखते…’ के अलावा संग्रह में अन्य कहानियां हैं किंतु उन सभी में केंद्रीय संवेदना का कोई सिरा शीर्षक कहानी से भी जुड़ता है।

अलका मुंबई में रहती है और विभिन्न कला माध्यमओं से सक्रिया के साथ जुड़ी हुई है, इसलिए फिल्मी दुनिया के लिए युवाओं के आकर्षण के साथ उन्हें इतिहास में दफन होते हुए भी देखा है।

यह कहानी दो युवाओं के संघर्ष की कहानी है जिनमें जोश, जुनून और जिद्द है कुछ कर गुजरने के सपने हैं। उनके सपने टूटते हैं संघर्ष में वे हारकर भी हार नहीं मानते हैं। उन्हें क्या अलका की किसी भी कहानी के स्त्री-पुरुष पात्रों में जीवन के साथ समझौते कर मुर्दा बनकर जिंदगी गुजराना उन्हें गवारा नहीं है। वे सभी अंततः संघर्ष करते हुए एक इतिहास रचते हैं, जो भले इतिहास में दर्ज ना हो किंतु पाठकों के हृदयों में जरूर अंकित होगा। युवा संघर्ष और जिद्दो-जहद के साथ एक आदर्श को रचती यह कहानी आधुनिकता की त्रासदी पर करारा व्यंग्य भी है।

भाषा के स्तर पर अलका अग्रवाल बेहद सजग हैं।

वे अपनी कहानियों की भाषा के माध्यम से परिवेश को ऐसे जीवंत बनाती है कि पात्र अपनी जमीन से जुड़े नजर आते हैं। उन्हें बनावटी और आयातित भाषा में रचा ही नहीं जा सकता है।

उदाहरण के लिए कहानी ‘टिकुली’ को देखेंगे तो बाल-मनोविज्ञान के साथ-साथ अपनी भाषिक संरचना में आर्थिक विभेदों को उजागर करती संघर्ष की ऐसी दुनिया हमारे समाने खोलती है जिसमें मां-बेटे का समानांतर एक संसार चलता है। पत्नी को पति की और पुत्र को पिता की अभिलाषा और इंतजार में यह कहानी एक ऐसे वितान को प्रस्तुत करती है, जहां से सब कुछ साफ-साफ देखा और महसूस किया जा सकता है।

कहानी में एक स्त्री और सिंदूर के रिस्ते को जिस गहराई से परिभाषित करने का प्रयास है, वह इतना बेजोड़ है कि इस कहानी के एक पाठ के बाद कोई उसे विस्मृत नहीं कर सकता है।

मुंबई के जीवन को यहां भी जैसे किसी कैमरे की आंख से कहानीकार ने बहुत हुनर के साथ कहानी में पिरोया है। कहानी संवेदना के स्तर पर पाठक के मर्म को छूती है।

सूर्यबाला जी ने फ्लैप पर लिखा है- ‘समाज के हर तबके की समस्याएं और स्थितियां तो इन कहानियों की पूजी है हीं मनुष्य-मन के गहन प्रकोष्ठों में भी इनका संवेदित प्रवेश है। उनका यही संतुलन इनके संतर्जगत और बर्हिजगत के बीच भी विद्यामान है।’

आजादी के बाद भी हमारे समाज के वर्गों में अर्थिक आधार पर बेहद दूरियां हैं। इन दूरियों के बाद भी मन तो मन के करीब आते हैं, आना चाहते हैं किंतु उन्हें फिर-फिर अपने घेरों और बंधनों में जकड़े जाने की त्रासदी को ‘अमसा’ कहानी में प्रस्तुत किया है। गरीबी ने स्त्रियों के जीवन में कैसे कैसे प्रहार किए हैं कि वे चाह कर भी स्वाभिमान से इस निर्दय समाज में गुजार-बसर कैसे करे। उन्हें केवल देह समझे और भोगे जाने की दारुण त्रासदी कब तक हमारे समाज में रहेगी, ऐसे अनेक सूक्ष्म सवालों को अपने में समेटे इस कहानी में विनी और अमसा का जीवन जैसे इतिहास बनता जाता है और वह फिर फिर दोहराया जाता है, भुलाए नहीं भूलता।

संग्रह की कुछ कहानियों में जैसे ‘सिलवटें जिंदगी की’ में जीवन की सच्चाइयां इस कदर अभिव्यक्त हुई हैं कि वे स्वयं लेखिका के जीवन-अध्ययन और पसंद का खुलासा भी करती हैं।

कहानी में कविता, कात्यायनी, किरन देसाई आदि के संदर्भों से बदलते जीवन में साहित्य के संबंध को व्यंजित किया गया है, वहीं अकेली स्त्री और पुरुष के बीच देह के गणित को भी कहानी बहुत सुंदर ढंग से रेखांकित करती है।

अलका संबंधों के बीच स्त्री के उलझते मन को शब्द देती हुई एक ऐसी स्त्री का चरित्र रचती है, जो अपने पैरों पर खड़े होकर समाज में बराबरी का स्थान पाना चाहती है।

‘जब अरूषि कहेगी’ कहानी में सिया के माध्यम से नारी के जीवन में बदलते समय और समाज में भी वही पुराने घिसे-पिटे पुराने राग के यहां तक चले आने की व्यथा है। पहली स्त्री और दूसरी स्त्री के बीच स्व-चेतना और अधिकार की लड़ाई में यहां स्त्री को ‘मुर्दा’ बनकर जीवन नहीं जीने का संदेश भी है।

‘नदी अभी सूखी नहीं’ कहानी अपने अनेक संदर्भों के माध्यम से अपने समय के सच को प्रस्तुत करती हुई धार्मिक समन्वय और सद्भाव की दिशा में उल्लेखनीय कही जा सकती है।

‘बुलू दी’ दो बहनों और दो सहेलियों के अंतर्द्वंद्व को रेखांकित करती है। स्त्री के स्वाभिमान, त्याग, बलिदान और स्त्री-मन के अनेक तंतुओं को रेसा-रेसा खोलती या उन्हें फिर फिर जीवंत करती अलका अग्रवाल की कहानियों में बीसवीं शताब्दी के ढलान को ऐसे शब्द-बद्ध किया गया है कि उससे गुजतरे हुए थोड़ा ठहर कर कुछ सोचने का अवकाश हम तलाश करते हैं।

‘बेटी’ कहानी में मां-बेटी का संबंध जिस तरलता के साथ सांकेतिक ढंग से व्यंजित हुआ है वह उल्लेखनीय है, वहीं ‘बुलबुला’ कहानी में कहानी के समानांतर जीवन की कल्पना एक प्रयोग के रूप में प्रस्तुत हुआ है।

इन कहानियों को यदि एक वाक्य में बांधा जाए तो कहानीकार अलका अग्रवाल का यह हम सब से यह सवाल है- क्या यह स्त्रियों की नियति है वे नए समय में भी अपने पुराने धिसे-पिटे जीवन को दोहराती रहेगी अथवा इक्कीसवीं शताब्दी में कुछ नए संकल्पों के साथ सामने आएंगी?

यह सवाल समय रहते हल करना जरूरी है।

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