स्वामी विवेकानंद के महान विचार

  • इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड नहीं है। बड़ा इंसान वो है, जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते है। यही सदा होता आया है। एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो- मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ। )
  • एक बार प्रेम व कल्याण के शांति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आएं, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता। (वि.स.1/389)
  • एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। (वि.स. 4/377)
  • किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं; तब तक उनके कार्य में सहायता करो; और जब तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आए, तो विनम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उन्हें सजग करो। (वि.स.4/315)
  • कुछ लोग ऐसे हैं, जो दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किंतु काम करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो। इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं-नहीं कहने से तो ‘नहीं’ हो जाना पडेगा। (वि.स. 4/387)
  • क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुध्दिमानी नहीं है। बुध्दिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढ़तापूर्वक खडे होकर कार्य करना चहिए। धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। (वि.स. 4/328)

क्या संस्कृत पढ़ रहे हो? कितनी प्रगति हुई है? आशा है कि प्रथम भाग तो अवश्य ही समाप्त कर चुके होगे। विशेष परिश्रम के साथ संस्कृत सीखो। (वि.स.1/379-80)

  • खूब शाबाश! छान डालो-सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो-चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते – तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ धीरे-धीरे अग्रसर होना पड़ रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान! (वि.स. 4/387)
  • जब कभी मैं किसी व्यक्ति को उस उपदेशवाणी (श्री रामकृष्ण के वाणी) के बीच पूर्ण रूप से निमग्न पाता हूँ, जो भविष्य में संसार में शांति की वर्षा करने वाली है, तो मेरा हृदय आनन्द से उछलने लगता है। ऐसे समय मैं पागल नहीं हो जाता हूँ, यही आश्चर्य की बात है। (वि.स. 1/334, 6 फरवरी, 1889)
  • जिस प्रकार स्वर्ग में, उसी प्रकार इस नश्वर जगत में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, क्योंकि अनंत काल के लिए जगत में तुम्हारी ही महिमा घोषित हो रही है, सब कुछ तुम्हारा ही राज्य है। (वि.स.1/387)
  • जिसके प्रेम का कोई अंत नहीं है, जो ऊँच-नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। (वि.स. 4/403)
  • जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
  • जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है। अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा और सुरक्षा प्रदान करता है।

जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो। उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो।

  • प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पड़ती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अंतरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनंत भण्डार है। जब तक हम उस अंतराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। (वि.स.1/389)
  • मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। इसी को श्री रामकृष्ण कहा करते थे, “भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।” सब विषयों में व्यवहारिक बनना होगा। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तूने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- “हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार” ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता। (वि.स.3/381)
  • मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं। निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं। यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।
  • मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है-मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। (वि.स. 4/407)
  • मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अंधविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है। धीरे-धीरे और भी लोग आएंगे। (वि.स. 4/408)
  • मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना-इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। (वि.स.6/352)
  • मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता, जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। (वि.स.4/340)

यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निंदा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। ये बातें सुनना भी महान पाप है। उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। (वि.स.4/313)

  • यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बिमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डाल कर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को कोट मिल जाता है, वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो, तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिंदू के कमरे के भीतर पहुँच जे, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं। ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिला कर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे। इससे अधिक विडंबना क्या हो सकती है? हे भगवान, कब एक मनुष्य दूसरे से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेगा। (वि.स.1/385)
  • यही दुनिया है! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्व नहीं देंगे, ज्यों ही तुम वह कार्य बंद कर दोगे, वे तुरंत (ईश्वर न करे) तुम्हें बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचाएंगे। मेरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे-स्नेहियों द्वारा सदा ठगे जाते हैं। (वि.स)
  • सांसारिक धक्का ही हमें जगाता है, वही जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
  • हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।

सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ।

  • हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वन! डरो मत; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलंबन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मैं तुम्हे दिखाता हूँ! (वि.स. 6/8)

Inspiring words of Swami Vivekanand in Hindi

Swami Vivekanand Slogans in Hindi

Motivational words of Swami Vivekanand in Hindi

Quotes of Swami Vivekanand in Hindi

स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन

स्वामी विवेकानंद के धर्म पर विचार

स्वामी विवेकानंद के विचार

स्वामी विवेकानंद के सामाजिक विचार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *