आत्मसात : कविता – संध्या रियाज़
क्या तुम निभाओगे उन शब्दों के अर्थों कोजिसकी चादर ओढ़ कर अक्सर बदलता है रूपभ्रमित करता है सदा हृदय को
Read moreक्या तुम निभाओगे उन शब्दों के अर्थों कोजिसकी चादर ओढ़ कर अक्सर बदलता है रूपभ्रमित करता है सदा हृदय को
Read moreउन बच्चों को जानते हो क्या?जो मिटटी के खिलौनों से खेलते हैंकई कई महीनों और कई सालोंवाकई वो लोहे के
Read moreसुनो मन क्या तुम्हें उदास होने की बीमारी हैक्यूँ बेवझा उदास हो हो करघर की चार दीवारी से लड़ जाते
Read moreसुनो तुम जब जन्मे थे तो रोये थे क्या ?हां तो मैं भी तो रोया थालेकिन तुम्हें मिला सब कुछ
Read moreतुमने कहा था हम एक हैंहर बंधन से परेबनाये हुए नियमों से दूरविश्वास और प्यार की डोर से बंधेसाथ जीने
Read moreतुम विश्वास हो तोदेदो मुझे कुछ अंश कीतुम से जुड़ केस्थिर हो सकूं तुम सम्मान हो तोदेदो थोड़ा मुझे भी
Read moreनींद न जाने अब क्यों नहीं आतीआती थी तब जब जागके पढ़ने की ज़रूरत होती थीतब भी आती थी जब
Read moreबुलंदी छूना तो छूनाछू के लौट आना तुमआसमान से टूटे तारेअक्सर गुम हो जाते हैं। उड़ना भला लगता हैपरिंदों का
Read moreअलग अलग मंदिर मस्जिद हैंअलग अलग हैं पहनावेअलग अलग अपनी बोली हैंअलग अलग है पूजा की रीत कुंए अलग बांटे
Read moreमिट्टी के घड़े थेसोंधा पानी देते थेदिल सबके बड़े थेसब सब से जुड़े थे बगीचे सबके थेफलों से जड़े थेछतों
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