शर्म! तुम जहां कहीं भी हो लौट आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा – व्यंग्य: विवेक रंजन श्रीवास्तव
बचपन में लुका-छिपी का खेल क्या खेल लिया, सारा जीवन ही तलाश में गुजर रहा है। किसी को नौकरी की तलाश है। किसी को जीवन साथी की, जीवन साथी मिल जाये तो उसमें मनमाफिक गुणों की तलाश शुरू हो जाती है। स्वाद की तलाश में क्या क्या नही खा लेते हम। चीनी तो टिड्डे, से लेकर चमगादड़ तक खा रहे हैं। सुकून के दो पल की तलाश में आदमी जीवन भर दौड़ता रह जाता है। प्रसन्नता की तलाश में क्या क्या नही खरीद लेता, कहां कहां नही भटकता पर सच्चा आनंद स्वयं अपने ही मन में छिपा होता है यह समझने के लिये भी हमें गुरू की तलाश बनी रहती है। जीवन की मंजिल की तलाश में भटकाव ही भटकाव मिलता है। तलाश मृगतृष्णा है जो कभी पूरी ही नही होती।
खैर, आज मैं जिसकी तलाश में हूं, वह है थोड़ी सी शर्म।
हुआ यह कि मैं एक ब्रांडेड कपड़ो के बड़े से शो रूम में गया, मुझे एक हाफ पैंट खरीदना था, जब मैंने एक निकर पसंद कर उसकी कीमत का टैग देखा तो मुझे लगा यह मिसप्रिंट है, पर जब मेरे दुराग्रह पर टाई लगाये सेल्सबॉय ने बार कोड मशीन से वेरीफाई करके भी वही हजारों में कीमत ही बताई तो मुझे लगा कि कंपनी को निक्कर की कीमत तय करने में बिल्कुल भी शर्म नही आई।
मैं भी पूरी बेशर्मी से शो रूम से बाहर जाने को ही था कि दरवाजे के पास ही एक बड़ी सी होर्डिंग में समुद्र तट पर एक अधनंगी तन्वी माडेल की तस्वीर नजर आई, जो किसी मंहगी बाथरूम चप्पल के विज्ञापन के लिये लगाई गई थी। न तो उस माडेल को शर्म आ रही थी, न ही बनाने वाले को शर्म आई, और न ही उस कंपनी को शर्म आई जो सौ – दो सौ रुपयों की हवाई चप्पल उस अर्ध नग्न विज्ञापन के जरिये हजारो में बेच रही थी। मुझे समझ आ रहा था कि शर्म गुमशुदा है।
शर्म नैसर्गिक मानवीय गुण है, जिसके बोध में कविता सा सौंदर्य है। शर्म, हया, लज्जा, झिझक के चलते मनुष्य चारित्रिक नियंत्रण में बना रहता है। तो मुझे लगा कि शर्म आवश्यक है। मैं शर्म की तलाश में निकल पड़ा।
मित्रों में चर्चा की। एक ने कहा कि शर्म नववधू में मिल सकती है। मैं उसी शाम एक शादी समारोह में व्हाट्सअप आमंत्रित था, तो मैं वहां जा पहुंचा। वर-वधू हंस-हंस कर ठिठोली करते मिले। दरअसल यह लव मैरिज का अरेंज्ड वर्शन था, अतः दूल्हा दुल्हन अच्छे मित्र थे। मैंने सोचा अच्छा ही है, जिन्हें जीवन साथ बिताना हो, उन्हें एक-दूसरे को पहले ही समझ लेना ठीक ही है, पर इस चक्कर में नववधु में शर्म की तलाश का मेरा प्रयास अधूरा रह गया।
मैं लौट रहा था। ध्यान आया कि पत्नी ने सब्जी मंगवाई है। तो मैं बाजार चला आया। मैने देखा कि एक शोल्डर कट, डीप नैक कुरतीधारी संभ्रांत महिला एक सब्जीवाली से मुफ्त में धनियां-मिर्ची डालने के लिये झिकझिक कर रही थी। इस मोल-तोल में उसे बिल्कुल शर्म नही आ रही थी। सब्जी वाली की फटी साड़ी ने बरबस मेरा ध्यान आकृष्ट किया। मुझे लगा फटी साड़ी पर शर्म न आना उसकी मजबूरी थी।
मैं घर पहुंचा, टीवी चलाया, ब्रेकिंग न्यूज चल रहा था। विधायकों को रिजार्ट से वापस बुलवा कर राज्यपाल के सम्मुख उनकी परेड कराई जा रही थी, जिस पक्ष के अधिक विधायक थे वह विपक्ष में, और जो संयुक्त रूप से जीते थे, वे पूरी बेशर्मी से मुख्यमंत्री बनने के लिये विपक्षियों के साथ खड़े थे। पब्लिक स्टेटमेंट्स के मुताबिक सब जनता की सेवा करने के लिये ही जोड़-तोड़ कर रहे थे, किन्तु सब समझ रहे थे कि वास्तविकता क्या है, किसी को रत्ती भर भी शर्म नही आ रही थी।
एक मन हुआ पास ही थाने में पहुंचकर शर्म की गुमशुदगी की रपट ही लिखवा दूं, लगा कि मेरी ऐसी बेढ़ब कम्पलेंट पर थानेदार पूरी बेशर्मी से ठहाका ही लगायेंगे, ताज्जुब नही कि मुझे पागल करार कर दिया जावे। सोच रहा हूं, क्या करूं कम से कम अखबार के खोया पाया वाले कालम में एक विज्ञापन ही दे दूं, “प्रिय शर्म ! तुम जहां कहीं भी हो लौट आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा।”
मदद करें, यदि आपको कहीं शर्म मिले तो इत्तला कीजीयेगा।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
A 1, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर
Photo Courtesy: Florian Wehde on Unsplash
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